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समझौते के अहम बिंदु
- समझौते के अनुसार अफगानिस्तान में मौजूद अपने सैनिकों की संख्या में अमेरिका धीरे-धीरे कमी लाएगा। इसके तहत पहले 135 दिनों में करीब 8,600 सैनिकों को वापस अमेरिका भेजा जाएगा।
- अमेरिका अपनी ओर से अफगानिस्तान के सैन्य बलों को सैन्य साजो-सामान देने के साथ प्रशिक्षित भी करेगा, ताकि वह भविष्य आंतरिक और बाहरी हमलों से खुद के बचाव में पूरी तरह से सक्षम हो सकें।
- तालिबान ने इस समझौते के तहत बदले में अमेरिका को भरोसा दिलाया है कि वह अल-कायदा और दूसरे विदेशी आतंकवादी समूहों से अपना नाता तोड़ लेगा। साथ ही अफगानिस्तान की धरती को आतंकवादी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल नहीं होने देने में अमेरिका की मदद करेगा।
अफगानिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा समिति के प्रवक्ता जावेद फैसल ने बीते सप्ताह कहा था कि अफगान सुरक्षा बलों और अमेरिका व तालिबान के बीच हिंसा में कमी जल्द ही हो जाएगी। उन्होंने शनिवार 22 फरवरी से हिंसा में कमी आने का दावा करते हुए कहा था कि यह कमी एक सप्ताह तक जारी रहेगी। हालांकि उन्होंने माना था कि हिंसा के पूरी तरह खत्म होने में समय लगेगा।
क्या है भारत की मुश्किलें बढ़ने की वजह
भू राजनैतिक रूप से अहम अफगानिस्तान में तालिबान के कदम पसारने से वहां की नवनिर्वाचित सरकार को खतरा होगा और भारत की कई विकास परियोजनाएं प्रभावित होंगी। इसके अलावा भी पश्चिम एशिया में पांव पसारने की तैयारी में लगी मोदी सरकार को बड़ा नुकसान होगा। यही वजह है कि अमेरिका और तालिबान के बीच सफल शांति वार्ता से भारत की मुश्किलें बढ़ सकती है।
भारत 116 सामुदायिक विकास परियोजनाओं पर काम कर रहा है, जिन्हें अफगानिस्तान के 31 प्रांतों में क्रियान्वित किया जाएगा। इनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई, पेयजल, नवीकरणीय ऊर्जा, खेल अवसंरचना और प्रशासनिक अवसंरचना के क्षेत्र शामिल हैं। भारत काबुल के लिए शहतूत बांध और पेयजल परियोजना पर भी काम कर रहा है।
अफगान शरणार्थियों के पुनर्वास को प्रोत्साहित करने के लिए भी नानगरहर प्रांत में कम लागत से घरों के निर्माण का काम भी प्रस्तावित है। बामयान प्रांत में बंद-ए-अमीर तक सड़क संपर्क, परवान प्रांत में चारिकार शहर के लिए जलापूर्ति तंत्र और मजार-ए-शरीफ में पॉलीटेक्नीक के निर्माण में भी भारत सहयोग दे रहा है। वहीं कंधार में अफगान राष्ट्रीय कृषि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की स्थापना में भारत सहयोगी है।
तालिबान को अमेरिका के साथ बातचीत की मेज पर पाकिस्तान ही लेकर आया, क्योंकि वह अपने पड़ोस से अमेरिकी फौजों की जल्द वापसी चाहता है। कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका-तालिबान की वार्ता में शामिल होने के लिए ही पाकिस्तान ने कुछ महीने पहले तालिबान के उप संस्थापक मुल्ला बारादर को जेल से रिहा किया था।
अगर अफगानिस्तान में तालिबान की जड़ें मजबूत होती हैं तो वहां की सरकार को हटाने के लिए पाकिस्तान तालिबान को सैन्य साजो-सामान मुहैया करा सकता है। क्योंकि, अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार के साथ पाकिस्तान के संबंध सही नहीं है।
ईरान के चाबहार पोर्ट के विकास में भारत ने भारी निवेश किया हुआ है, ताकि अफगानिस्तान, मध्य एशिया, रूस और यूरोप के देशों से व्यापार और संबंधों को मजबूती दी जा सके। इस परियोजना को चीन की वन बेल्ट वन रोड परियोजना की काट माना जा रहा है। ऐसे में यदि तालिबान सत्तासीन होता है तो भारत की यह परियोजना भी खतरे में पड़ सकती है क्योंकि इससे अफगानिस्तान के रास्ते अन्य देशों में भारत की पहुंच बाधित होगी।
सिर्फ यही नहीं, अमेरिकी फौजों के वापस जाते ही तालिबान अफगान सरकार के खिलाफ युद्ध का ऐलान भी कर सकता है, इससे इस देश में गृहयुद्ध का खतरा पैदा हो सकता है। हालांकि समझौता के तहत धीरे-धीरे अमेरिकी सेना हटाए जाने की बात कही है, ऐसे में देखाना होगा कि क्षेत्र में क्या हालात बनते हैं। वैसे तालिबान को पाकिस्तान से परोक्ष रूप से मिलने वाला सैन्य समर्थन अफगान सरकार के लिए चिंता का विषय रहा है।
अमेरिका में बड़ा चुनावी मुद्दा
अफगानिस्तान में लगभग 20 सालों से चल रहे युद्ध को खत्म करने के लिए अमेरिका पूरा जोर लगा रहा था, क्योंकि उसे अपने 20 हजार सैनिकों को यहां से निकालकर वापस अपने देश ले जाना है। वहीं अमेरिका के अफगानिस्तान छोड़ने को अंतरराष्ट्रीय जगत में एक सुपरपावर की हार के तौर पर देखे जाने का खतरा भी था।
वहीं, अमेरिका में 2020 में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में यह बड़ा मुद्दा है। राष्ट्रपति ट्रंप ने पिछले चुनाव प्रचार में दो दशकों से अफगानिस्तान में तैनात अमेरिकी फौज की वापसी को बड़े मुद्दे के रूप में भुनाया था। लेकिन, ट्रंप यह वादा आज से पहले तक पूरा नहीं कर पाए थे। अब ताजा समझौते के बाद अमेरिकी सैनिकों की वापसी ट्रंप को इस मुद्दे पर राष्ट्रपति पद के चुनाव में फायदा हो सकता है।
माना जाता है कि तालिबान सबसे पहले धार्मिक आयोजनों या मदरसों के जरिए अपनी उपस्थिति दर्ज कराई जिसमें इस्तेमाल होने वाला ज्यादातर पैसा सऊदी अरब से आता था। 80 के दशक के अंत में सोवियत संघ के अफगानिस्तान से जाने के बाद वहां कई गुटों में आपसी संघर्ष शुरू हो गया था जिसके बाद तालिबान का जन्म हुआ। उस समय अफगानिस्तान की परिस्थिति ऐसी थी कि स्थानीय लोगों ने तालिबान का स्वागत किया।
शुरुआत में तालिबान की लोकप्रियता इसलिए ज्यादा थी क्योंकि उसने बंदूक की नोंक पर देश में फैले भ्रष्टाचार और अव्यवस्था पर अंकुश लगाया। तालिबान ने अपने नियंत्रण में आने वाले इलाकों को सुरक्षित बनाया ताकि लोग स्वतंत्र रूप से व्यवसाय कर सकें।
पाकिस्तान इस बात से इनकार करता रहा है कि तालिबान के उदय के पीछे उसका ही हाथ रहा है। लेकिन, इस बात में कोई शक नहीं है कि तालिबान के शुरुआती लड़ाकों ने पाकिस्तान के मदरसों में शिक्षा ली।
90 के दशक से लेकर 2001 तक जब तालिबान अफगानिस्तान में सत्ता में था तो केवल तीन देशों ने उसे मान्यता दी थी- पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब। तालिबान के साथ कूटनीतिक संबंध तोड़ने वाला भी पाकिस्तान आखिरी देश था।
9/11 के कुछ समय बाद ही अमेरिका के नेतृत्व में गठबंधन सेना ने तालिबान को अफगानिस्तान में सत्ता से बेदखल कर दिया, हालांकि वह तालिबान के नेता मुल्ला उमर और अल कायदा के बिन लादेन को नहीं पकड़ सका था। हालांकि 2 मई 2011 को पाकिस्तान के एबटाबाद में अमेरिका के नेवी सील कमांडो ने ओसामा बिन लादेन को मार गिराया था।
अफगानिस्तान से विदेशी सेनाओं की वापसी के बाद तालिबान का अफगानिस्तान में फिर से वर्चस्व स्थापित हो सकता है जो भारत की सुरक्षा चिंताओं को बढ़ा सकता है। यह क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए भी चुनौतियां खड़ी कर सकता है। पाकिस्तान से तालिबान की नजदीकियों को देखते हुए तालिबानी आतंकी पाकिस्तान के रास्ते भारत में घुसपैठ की कोशिश कर सकते हैं। कई सुरक्षा एजेंसियों इसकी आशंका पहले ही जता चुकी हैं।
भारत शुरुआत से ही तालिबान का खुले तौर पर विरोध करता रहा है। जब तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जा किया था तो भारत ने उसे मान्यता नहीं दी थी। भारत तालिबान के साथ हुई शांति वार्ता में भी कभी शामिल नहीं हुआ।
समझौते के अहम बिंदु
- समझौते के अनुसार अफगानिस्तान में मौजूद अपने सैनिकों की संख्या में अमेरिका धीरे-धीरे कमी लाएगा। इसके तहत पहले 135 दिनों में करीब 8,600 सैनिकों को वापस अमेरिका भेजा जाएगा।
- अमेरिका अपनी ओर से अफगानिस्तान के सैन्य बलों को सैन्य साजो-सामान देने के साथ प्रशिक्षित भी करेगा, ताकि वह भविष्य आंतरिक और बाहरी हमलों से खुद के बचाव में पूरी तरह से सक्षम हो सकें।
- तालिबान ने इस समझौते के तहत बदले में अमेरिका को भरोसा दिलाया है कि वह अल-कायदा और दूसरे विदेशी आतंकवादी समूहों से अपना नाता तोड़ लेगा। साथ ही अफगानिस्तान की धरती को आतंकवादी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल नहीं होने देने में अमेरिका की मदद करेगा।
अफगानिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा समिति के प्रवक्ता जावेद फैसल ने बीते सप्ताह कहा था कि अफगान सुरक्षा बलों और अमेरिका व तालिबान के बीच हिंसा में कमी जल्द ही हो जाएगी। उन्होंने शनिवार 22 फरवरी से हिंसा में कमी आने का दावा करते हुए कहा था कि यह कमी एक सप्ताह तक जारी रहेगी। हालांकि उन्होंने माना था कि हिंसा के पूरी तरह खत्म होने में समय लगेगा।
क्या है भारत की मुश्किलें बढ़ने की वजह
भू राजनैतिक रूप से अहम अफगानिस्तान में तालिबान के कदम पसारने से वहां की नवनिर्वाचित सरकार को खतरा होगा और भारत की कई विकास परियोजनाएं प्रभावित होंगी। इसके अलावा भी पश्चिम एशिया में पांव पसारने की तैयारी में लगी मोदी सरकार को बड़ा नुकसान होगा। यही वजह है कि अमेरिका और तालिबान के बीच सफल शांति वार्ता से भारत की मुश्किलें बढ़ सकती है।
भारत की अफगानिस्तान में चल रही इन परियोजनाओं को खतरा
भारत 116 सामुदायिक विकास परियोजनाओं पर काम कर रहा है, जिन्हें अफगानिस्तान के 31 प्रांतों में क्रियान्वित किया जाएगा। इनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई, पेयजल, नवीकरणीय ऊर्जा, खेल अवसंरचना और प्रशासनिक अवसंरचना के क्षेत्र शामिल हैं। भारत काबुल के लिए शहतूत बांध और पेयजल परियोजना पर भी काम कर रहा है।
अफगान शरणार्थियों के पुनर्वास को प्रोत्साहित करने के लिए भी नानगरहर प्रांत में कम लागत से घरों के निर्माण का काम भी प्रस्तावित है। बामयान प्रांत में बंद-ए-अमीर तक सड़क संपर्क, परवान प्रांत में चारिकार शहर के लिए जलापूर्ति तंत्र और मजार-ए-शरीफ में पॉलीटेक्नीक के निर्माण में भी भारत सहयोग दे रहा है। वहीं कंधार में अफगान राष्ट्रीय कृषि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की स्थापना में भारत सहयोगी है।
तालिबान-अमेरिका शांति वार्ता पाकिस्तान के लिए फायदे का सौदा
तालिबान को अमेरिका के साथ बातचीत की मेज पर पाकिस्तान ही लेकर आया, क्योंकि वह अपने पड़ोस से अमेरिकी फौजों की जल्द वापसी चाहता है। कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका-तालिबान की वार्ता में शामिल होने के लिए ही पाकिस्तान ने कुछ महीने पहले तालिबान के उप संस्थापक मुल्ला बारादर को जेल से रिहा किया था।
अगर अफगानिस्तान में तालिबान की जड़ें मजबूत होती हैं तो वहां की सरकार को हटाने के लिए पाकिस्तान तालिबान को सैन्य साजो-सामान मुहैया करा सकता है। क्योंकि, अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार के साथ पाकिस्तान के संबंध सही नहीं है।
चाबहार परियोजना को भी खतरा
ईरान के चाबहार पोर्ट के विकास में भारत ने भारी निवेश किया हुआ है, ताकि अफगानिस्तान, मध्य एशिया, रूस और यूरोप के देशों से व्यापार और संबंधों को मजबूती दी जा सके। इस परियोजना को चीन की वन बेल्ट वन रोड परियोजना की काट माना जा रहा है। ऐसे में यदि तालिबान सत्तासीन होता है तो भारत की यह परियोजना भी खतरे में पड़ सकती है क्योंकि इससे अफगानिस्तान के रास्ते अन्य देशों में भारत की पहुंच बाधित होगी।
अफगान सरकार को भी खतरा
सिर्फ यही नहीं, अमेरिकी फौजों के वापस जाते ही तालिबान अफगान सरकार के खिलाफ युद्ध का ऐलान भी कर सकता है, इससे इस देश में गृहयुद्ध का खतरा पैदा हो सकता है। हालांकि समझौता के तहत धीरे-धीरे अमेरिकी सेना हटाए जाने की बात कही है, ऐसे में देखाना होगा कि क्षेत्र में क्या हालात बनते हैं। वैसे तालिबान को पाकिस्तान से परोक्ष रूप से मिलने वाला सैन्य समर्थन अफगान सरकार के लिए चिंता का विषय रहा है।
वार्ता के खिलाफ रही अफगान सरकार
अमेरिका में बड़ा चुनावी मुद्दा
अफगानिस्तान में लगभग 20 सालों से चल रहे युद्ध को खत्म करने के लिए अमेरिका पूरा जोर लगा रहा था, क्योंकि उसे अपने 20 हजार सैनिकों को यहां से निकालकर वापस अपने देश ले जाना है। वहीं अमेरिका के अफगानिस्तान छोड़ने को अंतरराष्ट्रीय जगत में एक सुपरपावर की हार के तौर पर देखे जाने का खतरा भी था।
वहीं, अमेरिका में 2020 में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में यह बड़ा मुद्दा है। राष्ट्रपति ट्रंप ने पिछले चुनाव प्रचार में दो दशकों से अफगानिस्तान में तैनात अमेरिकी फौज की वापसी को बड़े मुद्दे के रूप में भुनाया था। लेकिन, ट्रंप यह वादा आज से पहले तक पूरा नहीं कर पाए थे। अब ताजा समझौते के बाद अमेरिकी सैनिकों की वापसी ट्रंप को इस मुद्दे पर राष्ट्रपति पद के चुनाव में फायदा हो सकता है।
आखिर कौन है तालिबान
माना जाता है कि तालिबान सबसे पहले धार्मिक आयोजनों या मदरसों के जरिए अपनी उपस्थिति दर्ज कराई जिसमें इस्तेमाल होने वाला ज्यादातर पैसा सऊदी अरब से आता था। 80 के दशक के अंत में सोवियत संघ के अफगानिस्तान से जाने के बाद वहां कई गुटों में आपसी संघर्ष शुरू हो गया था जिसके बाद तालिबान का जन्म हुआ। उस समय अफगानिस्तान की परिस्थिति ऐसी थी कि स्थानीय लोगों ने तालिबान का स्वागत किया।
शुरुआत में तालिबान की लोकप्रियता इसलिए ज्यादा थी क्योंकि उसने बंदूक की नोंक पर देश में फैले भ्रष्टाचार और अव्यवस्था पर अंकुश लगाया। तालिबान ने अपने नियंत्रण में आने वाले इलाकों को सुरक्षित बनाया ताकि लोग स्वतंत्र रूप से व्यवसाय कर सकें।
तालिबान को बढ़ाने में पाकिस्तान का रहा हाथ
पाकिस्तान इस बात से इनकार करता रहा है कि तालिबान के उदय के पीछे उसका ही हाथ रहा है। लेकिन, इस बात में कोई शक नहीं है कि तालिबान के शुरुआती लड़ाकों ने पाकिस्तान के मदरसों में शिक्षा ली।
90 के दशक से लेकर 2001 तक जब तालिबान अफगानिस्तान में सत्ता में था तो केवल तीन देशों ने उसे मान्यता दी थी- पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब। तालिबान के साथ कूटनीतिक संबंध तोड़ने वाला भी पाकिस्तान आखिरी देश था।
9/11 का बदला लेने के लिए अमेरिका ने किया था अफगानिस्तान पर हमला
9/11 के कुछ समय बाद ही अमेरिका के नेतृत्व में गठबंधन सेना ने तालिबान को अफगानिस्तान में सत्ता से बेदखल कर दिया, हालांकि वह तालिबान के नेता मुल्ला उमर और अल कायदा के बिन लादेन को नहीं पकड़ सका था। हालांकि 2 मई 2011 को पाकिस्तान के एबटाबाद में अमेरिका के नेवी सील कमांडो ने ओसामा बिन लादेन को मार गिराया था।
घुसपैठ बढ़ने की आशंका
अफगानिस्तान से विदेशी सेनाओं की वापसी के बाद तालिबान का अफगानिस्तान में फिर से वर्चस्व स्थापित हो सकता है जो भारत की सुरक्षा चिंताओं को बढ़ा सकता है। यह क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए भी चुनौतियां खड़ी कर सकता है। पाकिस्तान से तालिबान की नजदीकियों को देखते हुए तालिबानी आतंकी पाकिस्तान के रास्ते भारत में घुसपैठ की कोशिश कर सकते हैं। कई सुरक्षा एजेंसियों इसकी आशंका पहले ही जता चुकी हैं।
तालिबान का खुला विरोधी है भारत
भारत शुरुआत से ही तालिबान का खुले तौर पर विरोध करता रहा है। जब तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जा किया था तो भारत ने उसे मान्यता नहीं दी थी। भारत तालिबान के साथ हुई शांति वार्ता में भी कभी शामिल नहीं हुआ।